Saturday 15 May 2010

बंद मुट्ठी और संवेदना

दस उँगलियाँ,
दो मुट्ठी
और, हर मुट्ठी में
उबलती संवेदना;
कभी इधर लुढ़कती;
कभी उधर ठुलकती;
सुलगती उँगलियो के बीच,
बाहर निकलने को पलटती;
लाखो बिलखती चींटियाँ
करंट बनके दौड़ती;
हर नृशंश अत्याचार की
कहानी को जोडती;
दमन के विरोध में
उठेंगी हथेलियाँ;
'इन्कलाब जिंदाबाद'
गाते चल पड़ेंगे मस्ताने बेलियाँ;
ताले लगाओ या पहरे बिठाओ,
फौलादी किलो में
कब बंदी बनी संवेदना;
जनम से ही सीखा जिसने,
चक्रव्यूह को भेदना
इतराते हो अपनी
ताकत पर बहुत तुम;
ज़माना देखेगा अब,
बंद मुट्ठियो का बोलना,
'दम है तो रोक कर दिखाओ ,
मेरी आत्मा का मुझे झकझोरना !'