Saturday 25 June 2011

घुसपैठिया

इन शब्दो की अजब माया है
कभी कविता बन बहते हैं
और कभी चुप्पी की कसक सहते हैं,
और ये चुप्पी भी कम नहीं,
कभी विराम दे आलिंगन सी चहकती है
और कभी शब्दो से अलग थलग सुलगती है
एक आगाज़ तो दूसरा मौन
समझ नहीं आता की
घुसपैठिया कौन!

Wednesday 1 June 2011

आहट

सुनो, क्या तुमने आहट को देखा है?
आहाते में हंसी ठट्ठा करती,
हवा से नोक जोख कर,
दरवाजो के मुंह पर तनकर खड़ी होती;
जैसे ललकार रही हो - क्यूँ चुप हो बाहर आओ,
और; जब मैं मुंडेर से नीचे झाँख
अपने किसी खोये ख़याल से रूबरू होने की आस में
नीचे जाती, तो वही आहट झट से चुप्पी ओढ़ लेती;
और गर्मियो में हमारे बीच ये लुक्का चुप्पी का खेल
वैसा ही हो जाता
जैसे बदलाव के सपने देखती जनता का,
दिल्ली के तुनकमिजाज़ सरमयादारो से होता है;
जिनके लिए कब कोई अन्ना ख़ास हो जाए,
या कब कोई मेधा पीछे छूट जाए;
इस तानेबाने को समझने में,
पसीने से तरोब्दार आम आदमी
केवल तिलस्मी बदलाव के सपने देखते रह जाता है;
और हक्काबक्का हो, मिडिया के सवालो पर कान गडाता है.
हर खबर जब आम भी हो और खास भी;
हर कहानी जब किसी का गुणगान भी हो'
और किसी से नाराज़ भी,
हेड्लाईनो में खुद को ढूँढता सा आम ये आदमी,
'मिडल क्लास' के बानगी खुद को नज़रबंद पाता है
तब कुलबुलाता हुआ हरारत से,
मुठी बंद हाथो को नारो के जोश में धकेलता हुआ;
'नज़रबंदी में हरकत जरूरी है'
ये समझता हुआ, समझाता हुआ,
निकल पड़ता है आहट बनकर मजबूत दरवाजो से भीड़ जाने;
कभी चीख कर, कभी चुप्पी से तो कभी किसी नई हलचल से चौकाने,
अभी अभी खबर मिली किसी ने फिर से १४४ की निष्ठुर-रेखा को उठा फेंका है,
सुनो, क्या तुमने आहट को देखा है?

बस, यूँ ही

आज बहुत दिनो के बाद तुम्हे याद किया है
और कारण कुछ बड़ा नहीं,
कभी हर शाम तुमसे मिलना होता था,
कुछ कहना होता था;
कुछ सुनना होता था,
कभी गर्म चाय के साथ ठहाके होते थे,
सर्द रात में मूलचंद के परांठे होते थे;
कभी किसी थिएटर में फिल्म का लुत्फ़ लेने की चहल होती थी,
और इन सब के बीच एक दुसरे को ढूँढने की पहल होती थी;
फिर भी बहुत कुछ अनकहा-अनसुना रहा...
तुम्हारा अपने दायरो को छुपाना,
मेरा अपने सपनो को बताना,
और खुद को बस कुछ लम्हो से बहलाना ,
इन में बंध जाते तो और बात होती;
साथ आगे बढ़ जाते तो और बात होती;
पर, हम एक दुसरे के सच को टटोलते रहे,
इन्द्रधनुषी लगाव में बंधते भी गए;
और कहीं पीछे छुटते भी रहे ,
आज निजामुद्दीन में चाँद निजामी के साथ साथ,
मै भी कुछ गुनगुना रही थी,
मानो इतेफ्फाक से लोगो को मिलाने वाले,
इस शहर को कुछ सुना रही थी,
तभी, एक दोस्त ने मेरे हाथो में 'जाने भी दो यारो' पकडाई'
सच, उस एक पल में ग़ालिब की बहुत याद आई!