Friday 18 October 2013

ख़ामोशी

tr. from Harekrishna Deka's English Poem 'Silence'

दो लोगों के बीच ख़ामोशी हो सकती है
पर ख़ामोशी भी ज़बान है
और बोलती है जब लफ्ज़ बेजुबान हों।
ये निजी है,
जबकि लफ्ज़ आम।
ये लगातार बढ़ सकती है।
पहाड़ की चोटी में तब्दील होती
एक खामोश-घाटी।

(thanks to Harekrishna Deka for sharing this poem)

बरसात आ रही है

tr. from Chaoba Phuritshabam's English poem 'Rain Comes Down', from Tattooed With Taboos: An Anthology of Poetry by Three Women from North-East India (2011), p. 116

एक दशक पहले बरसात आई थी, एक साल पहले
बरसात आई थी इक बीते उदास दिन। 
हालांकि, इसने बस कोशिश की उसकी याद मिटाने की
उसकी ख़ता के बोझ बगैर, मुझे अकेले आगे बढाने की
भले ही, मैंने शिकायत नही की
उसके मेरे ख्वाबों को अचानक छोड़ जाने की
भले ही, मैंने उसे सवाल नहीं किया। 
रेत में धुंधलाते उसके पैरों के निशान छेडती मैं बस मुस्कुराई। 
जब जाड़ों में अचानक बारिश की बूँदे मेरे होंठों को नम कर जाती हैं
महसूस होती है मुझे मेरे आसपास तुम्हारी मौजूदगी,
ओह! कंही ये एक नए ख्वाब की शुरुआत तो नही ?

Saturday 12 October 2013

मेंढकी बरसातें

tr. from Bishash Chaudhary's English tr. of Harekrishna Deka's Assamese poem 'Frog rains'

पिछले मानसून, हमारे इलाके में बरसात नहीं हुयी
हमने मेंढ़कों की शादी करा दी थी,
याद है ? उल्लासपूर्ण नवविवाहित मेंढक-दम्पति सारे क्षेत्र में फुदकते रहे
वो क्षितिज़ के गहरे बादलों की ओर चले गए
हमने बादलों की चट्काहट नहीं सुनी
आख़िर, वो हमारे आकाश के बादल तो नहीं थे,
हमारी योजनायें (और हमारे अनुमान)
बिगड़ गए।
जैसे-जैसे आनंदमय मेंढ़क-जोडे दूर जाते रहे
हम आस लगाते रहे, और प्रार्थना करते रहे
मेंढक-दुल्हनें, लाखों, उम्मीद से हों।

आज, आकाश है बादलों भरा
क्या तुम सुनते हो कडकडाना ?
असाधारण बारिश होगी इस साल, कहता है ज्योतिषी
हमने अब सुना, पहले कभी ना सा, गडगडाना।

देखो, बरसात आ रही है
लगभग, ओला-वृष्टि ! हमारी छतों,
सड़कों, और पहाड़ियों पर भी
ये आवाज़ है मुसलाधार बारिश की
पर नहीं --
ये है मेंढकी बरसात
मेंढक-दुल्हनें अब माँ है
गर्भ के चिकने सुकून में पले लाखों की
हजारों, और हजारों नवजात मेंढक
आ रहे हैं,
मेंढकी बरसात के साथ।

उनके चेहरों पर साफ़ दीखते हैं नयी योजनाओं के निशान,
लिए नए आंकलनों को,
हमारे सिरों पर मंडराते मेंढक झुण्ड
हम अब समर्पण कर रहे हैं नए समय को।

आने वाले बढ़िया समय हेतु
जारी हैं मेंढकी-योजनायें,
रस्म-स्वरूपी और मंत्रों जैसी
रटकर प्रचारित होती।

मेंढकी बौछारें अभी तक पड़ रही है
पीटते, चोट खाते, बरसातों में भींग रहे हैं हम।

(thanks to Himanshu Upadhyaya, Sonu Hari)

Friday 11 October 2013

आजादी की ओर

tr. from Bishash Chaudhary's English tr. of Harekrishna Deka's Assamese poem, 'Towards Freedom.' From The Oxford Anthology of Writings From North-East India, pg. 16, 2011.

तुम आओगे हमारे साथ। हम तुम्हे हाथ पकड़ ले जायेगें।
सड़क की ओर ना देखना।  हम तुम्हारी आँख ढकेंगे।  
हम तुम्हारे लिए सड़क बनायेंगे।  और तुम्हारे हाथ बाँधेंगे।
हम तुम्हे आजाद मैदान ले जाएँगे।  और तुम्हारी आँखें खोलेंगे।
तुम्हे आजाद मैदान ले जाएँगे।  और तुम्हारे हाथ खोलेंगे।

हंगामा ना खड़ा करना।  हम रटायेंगे तुम्हे नया पहाड़ा।
हम देंगे नया अक्षर।  तमाशा ना खड़ा करना। 

हम ले जायेंगे तुम्हे आजाद मैदां। हम देंगे तुम्हे खुला आसमां । 
तुम्हारा स्वागत करेंगी आज़ाद फुहारें वहाँ।  पंखा करेंगी तुम्हे आज़ाद हवा।

भूख से बिलबिलाना मत । हम देंगे तुम्हे पानी मीठा। 
नंगी टहनियों को ताकना मत।  निहारने को देंगे हम तुम्हे रंगीन चश्मा  ।

हम ले जायेंगे तुम्हे आजाद मैदां, और गवायेंगे तुम्हें हमारा गीत ।
हम पहनाएंगे तुम्हे नया मुखौटा, और सिखायेंगे तुम्हे नई रीत ।

तूम आओगे हमारे साथ।  तुम हमारी हँसी हँसोगे।
तुम नाचोगे हमारा नाच।  तुम हमारे आँसू रोओगे । 

Wednesday 9 October 2013

अपील

tr. from Mizo Poet Cherrie L. Chhangte's English Poem 'Plea', from The Oxford Anthology of Writings From North-East India, pg. 75, 2011.

समझो मुझको।
मैं चाहूँगी बने रहना एक नारी
ना प्रतिमा, ना परछाई।
हाड़-मांस का शरीर
जिस संग हो इंसानी कमज़ोरी
और, इंसानी भावनायें भी। 

पुराणों से निकालो मुझको।
मेरे कबीले का प्रतिनिधि नहीं,
मैं चाहूँगी बने रहना एक इंसान;
अहंवादी और स्वार्थी
जिसके हों निजी भेद
और, निजी जरूरतें भी।

सँभालो खुद को ।
दिलचस्प पहेली नही,
मैं चाहूँगी बने रहना कोई खुली किताब;
और, ग़र इसमें हो तुम्हारी मनाही
तो पहुँच पाऊँ उस पार, 
पाट हमारे बीच की खाई।

बदलो खुद को ।
फ़ेंक दो धारणाएं और अनुमान,
करते हुए अलग अतीत से वर्तमान
रीति, रिवाजों, और विद्याओं की धरोहर,
स्मृति का कोई धुंधला ख़याल नहीं
मैं चाहूँगी बने रहना एक जमीनी सच्चाई। 

Tuesday 8 October 2013

एक बूढ़ा कहानीवाचक

tr. from Naga poet Temsula Aao's English Poem 'The Old Storyteller', from The Oxford Anthology of Writings From North-East India, pg. 83-86, 2011.


मैंने यह सोच अपनी ज़िन्दगी जी
कि कहानी कहना मेरी महान परंपरा है ।

वो जो मुझे मिली
मेरे दादा से
बनी मेरी ख़ास निधि
और जो मैंने इकटठा की
अन्य इतिहासकारों से
जुडी इस विद्या में ।

जब मेरा समय आया, मैंने कही कहानियाँ ।

जैसे वो मेरे खून में बहती हों
क्यूंकि हर वर्णन पुनर्जीवित करता है
मेरे प्राण
और हर कहानी मजबूत करती है
मेरे जातीय संस्मरण ।

उस क्षण की कहानियाँ
जहाँ हम छह पत्थरों से टूट कर बने और
कैसे पूर्वजों ने स्थापित किये
एतिहासिक गाँव और
पूजा प्रकृति को ।

योद्धा और बाघ-बहादुर
जाग जाते हैं इन किस्सों में
और वो सारे जानवर भी
जो थे हमारे भाई, तब तक
जब तक,
ना ईजाद कर ली हमने मानवीय भाषा
और कहने लगे उन्हें जंगली ।

दादा ने लगातार चेताया था
कि कहानियाँ भूल जाना
होगा विनाशकारी:
खो देंगे हम अपना इतिहास,
अधिकार, और निस्संदेह
अपनी मौलिक पहचान।

इसीलिए मैंने कही कहानियाँ
मेरी जातीय जिम्मेदारी के स्वरुप
सिखाना युवाओं को
आस्तित्व और जरूरी प्रथाओं को सँभालने की कला
जो मिल सके दूसरी पीढ़ी को ।

पर अब आ गया है नया जमाना 
विस्थापित करता वो सब जो है पुराना ।

मेरे अपने पौते नकारते है
हमारी कहानियाँ मानो हो सदियों पुरानी बकवास
व्यर्थ आज, तमाम
और पूछते हैं
किसे चाहिए टेढ़ी मेढ़ी कहानियाँ
जब क़िताबों से चल सकता है काम ?

मेरे अपनों के इनकार ने
रोक दिया है बहाव
और कथाएँ लौटने लगी हैं
मन की दुर्गम गुफाओं मे
जहाँ कभी गूंजती थी कहानियाँ
अब बसती है अकल्पनीय ख़ामोशी।

तो जब याददाश्त डगमगाने लगती है
और शब्द लड़खड़ाने
तब मुझे जीत जाती है एक पाशविक लालसा 
खींच लेने की
उस पहले कुत्ते से उसकी हिम्मत*
और सौंप देने की, उसकी आँतों में छुपी लिपि को,
मेरी सारी कहानियाँ ।

(* ओ-नागा समुदाय के अनुसार कभी उनके पास एक चमड़े पर अंकित लिपि/ आलेख था जिसे एक दिवार पर टांगा गया था ताकि सब उससे पढ़ और सीख सकें । पर, एक दिन एक कुत्ता उसे खींच कर खा गया । तबसे, लोगों का कहना है कि उनके जीवन का हर पहलू -- सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, और धार्मिक -- मौखिक प्रथाओं द्वारा जन स्मृति का हिस्सा रहा है ।)

Monday 7 October 2013

मुझे

tr. from Assamese poet Aruni Kashyap's English poem 'Me'.

मेरे पास भी हैं शब्द।
चिकनी-मिट्टी जैसे उन्हें मैं ढाल सकता हूँ
मेरे पास हैं भाषाएँ, साहित्य
वन गीत ।

सदियों पीछे जाते वो,
भूकंप, पीढ़ी दर पीढ़ी ।
दादियों ने उन्हें फैलाया था; सुपारी के साथ
मधु मास तले आँगन पे,
बारिशों जैसे, वो भी भिगा जाते हैं मन और बहुत कुछ --
पहले भीगे हुए, जिनके पास समय की कमी है,
और नए जिनके पास कहानियों की ।

समय के साथ, वो भी निकल आए हैं
मौसमों और कोहरों की तरह, रहने हमारे पास ।

मेरे पास हैं धुनें भी, क़िताबे
केंचुओं के खून से छाल पर लिखी हुई;
वो अलग हैं,
स्वछंद, मेरे सीने में छुपी नदियों की भाँति
कहावतों से भरी,
उदास, फिर भी प्रचंड ऊर्जा से उमड़ती हुईं
विरह में गाती कोयलों की भाँति
बेनाम, पहाड़ियों के परे
जहाँ नदियाँ और बरसात जन्म लेतीं हैं
बहने के लिए कहानियाँ, प्राण बनकें।

मेरा इतिहास अलग है,
दादियों, नदियों, पहाड़ियों, हरे पेड़ों के पीछे से गाने वाली कोयलों
और सत्रह विजयों से परिभाषित ।

मेरे शब्द: उनमें दंतकथाएं हैं ।
जैसे मेरी रगो में बहती है चाय-पत्ती
रक्त नहीं ।
कहानियाँ, पिछली कब्रों से बोलते नवजात शिशुओं की 
आदमी में बदल जाने वाले कुत्तों की
बकरियों, भेड़ों में बदल जाने वाले आदमियों की
और, नींबू, लौकी, कुमुद बन पिछवाड़े गाने वाली लड़की की ।

और मैं अभी भी प्रतीक्षा में हूँ एक स्नेहपूर्ण आलिंगन की,
मोर की तरह बेक़रारी में सूखता, मेरा गला ।
मेरी जमीन से निकलती सारी नदियाँ
बरसातों भरी दंतकथाएँ,
मेरी प्यास नहीं बुझा सकती,
मुझे चाहिए तुम्हारा प्रेम
क्या तुम नहीं देख सकते,
मैं अलग हूँ ?

मेरे पास भी हैं शब्द,
भाषाएँ, साहित्य
और कथाएँ तुम्हे बताने को
क्या तुम उत्सुक हो सुनने को, थोडा भी ?

(thanks to Samhita Barooah)

Sunday 6 October 2013

दिल्ली

tr. from Avinash Dharmadhikari's English poem 'Delhi'.

मेरा काम है
दिल्ली के बीज़ी चौराहे पे
गाड़ियों के शीशों की धुलाई
जैसे मारूति, एम्बेसडर, सोनाटा,
और मर्सिडीज़ भी

मेरी दाईं बाँह पर है
एक जलती सिगरेट का निशाँ
मुस्कुराते नौज़वानों ने सिखाया मुझे
नहीं छूना है इन कारों को कभी

मेरे पास पैंट है
और सर्दियों में
एक आध दिन के लिए ही सही
एक सरकारी रजाई भी

मुझे खाँसी है
जो जाती ही नही
और दस-एक मिनट को
खाना भी कभी कभी

मेरा एक दोस्त है
हम साथ सोते हैं,
या सोते थे, कभी जभी
ज्यादा कमाने के जुर्म में
किसी ने तोड़ डाले उसके पैर भी

मेरे पास है एक कहानी
मेरे मन में कहीं
सर्दियों में, बीरबल की कहानी
जो माँ ने सुनाई थी कभी

मेरे पास कहानी है
जाड़ों को जी लेने की
किसी बन्दे ने जीत ली थी एक रात
बर्फीले पानी में भी
तीन कोस दूर एक लैंप को देख देख
और उसकी आग, ताप, और रोशनी चुराकर ही

मेरे पास माँ है
मन ही में सही
जिसका ख़याल उन पलों से बुना
जहाँ मैंने माँ को सुना
और गढ़ी एक बेटे की छवि

मेरे पास सोने की जगह है
हर रात नई नई
या कुछ घंटो के लिए कभी,
मेरा क़ानून कहता है
और कहती है ठुल्ले की लात भी,
ना फूटपाथ मेरे हैं
और ना रेल की पटरी ही

मैंने थामे हैं सौ
कभी पांच सौ भी
सुबह से दुपहरी तक
और खा लिया भर पेट
किसी अनोखी शाम को कभी कभी

मेरे पास है तपता सूरज
सर्द बरसातें
तेज हवाएँ
और पथरीले फूटपाथ तले जमीं

मेरा काम है
मर्सिडीज़ की धुलाई
मैं हूँ...
दिल्ली

(thanks to Ashish Dha)