मेरा काम है
दिल्ली के बीज़ी चौराहे पे
गाड़ियों के शीशों की धुलाई
जैसे मारूति, एम्बेसडर, सोनाटा,
और मर्सिडीज़ भी
और मर्सिडीज़ भी
मेरी दाईं बाँह पर है
एक जलती सिगरेट का निशाँ
मुस्कुराते नौज़वानों ने सिखाया मुझे
नहीं छूना है इन कारों को कभी
मेरे पास पैंट है
और सर्दियों में
एक आध दिन के लिए ही सही
एक सरकारी रजाई भी
मुझे खाँसी है
जो जाती ही नही
और दस-एक मिनट को
खाना भी कभी कभी
मेरा एक दोस्त है
हम साथ सोते हैं,
या सोते थे, कभी जभी
ज्यादा कमाने के जुर्म में
ज्यादा कमाने के जुर्म में
किसी ने तोड़ डाले उसके पैर भी
मेरे पास है एक कहानी
मेरे मन में कहीं
सर्दियों में, बीरबल की कहानी
जो माँ ने सुनाई थी कभी
मेरे पास कहानी है
जाड़ों को जी लेने की
किसी बन्दे ने जीत ली थी एक रात
बर्फीले पानी में भी
बर्फीले पानी में भी
तीन कोस दूर एक लैंप को देख देख
और उसकी आग, ताप, और रोशनी चुराकर ही
मेरे पास माँ है
मन ही में सही
जिसका ख़याल उन पलों से बुना
जहाँ मैंने माँ को सुना
और गढ़ी एक बेटे की छवि
तेज हवाएँ
और पथरीले फूटपाथ तले जमीं
मेरा काम है
मर्सिडीज़ की धुलाई
मैं हूँ...दिल्ली
(thanks to Ashish Dha)
1 comment:
The poem was to me, evocative of the stretch of Ring road between Nizamuddin and Kashmiri gate.
Especially like these lines-
मेरे पास पैंट है
और सर्दियों में
एक आध दिन के लिए ही सही
एक सरकारी रजाई भी.
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