Tuesday, 19 May 2015

'फिर लिखो, तूम'

(These are for you Akhil - thank you for not giving up on me!)

I
कैसे लिखूँ  
कि उदासी उबासी बन 
भीतर उबल रही है?
ख्याल बहुत हैं 
जुगाली के लिए, 
पर तंज़ करता अक्स 
दीखता है बैठे, घात मारे 
और, हर अक्षर उभरते उभरते 
सिकुड़ जाता है,
लाड़ की तलाश में।

II

उदास उलझनों में, 
पालथी मारे लफ़्ज़
तर्जुमे की बैसाखियाँ पकडे 
लड़खड़ाते, 
निकले हैं, अब 
हम-बीती का कारवां बनाते।

No comments: