Sunday, 8 March 2009

ज़िन्दगी

कहीं दायरो में सिमट ना जाए ज़िन्दगी
तंग सोच में उलझी,
ढलती हुई शाम सी,
डरती हूँ,
मेरे रुकने से कहीं, रुक ना जाए ज़िन्दगी
हँसी के पैमाने में;
छोटी-छोटी सी खुशी,
रास्तो को ढूँढती,
बंधती सी दिल्लगी;
बहती हुई, सहती हुई
लक्ष्मण रेखा भी कभी;
आग के शोलो में;
कहीं दहक ना जाए ज़िन्दगी;
डरती हूँ,
मेरे रुकने से कहीं, रुक ना जाए ज़िन्दगी

खोजती है, जानती है
मगर फिर भी,
हचानती है;
विरह को वेदना से,
अलग क्यूँकर मानती हैं?
पाकर भी खोती, या खोकर भी पाती
इसकी ये जुस्तजू;
की, ऐ दिल तेरे एहसास को,
मचलती सी ज़िन्दगी,
डरती हूँ;
मेरे रुकने से कहीं, रुक ना जाए ज़िन्दगी

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