Monday, 3 October 2011

कुछ और बात...

तुतलाती हुई
जो लब पर आकर रुके ना
जो तब और अब की
देहलीज़ पर, खड़ी सोचती न रहे;
न पड़े इन झंझटो के बीच
की; अब हम आपके हैं कौन ?
उलझनों में जो,
बिना सर पैर के मचले एक बार फिर
और; थोड़ी अंगडाई लिए
साथ उड़ान के नए अंजुमन करें दाख़िल,
पुराने हर सिलसिले से परे;
चलो, अब कुछ और बात करें...