तुम्हारी मेरी पहचान
शब्दों से बनी थी,शुरुआत शायद ऐसे ही होती है
पर, अंत भी जब सतही शब्दों से हो,
तो कही गई हर बात
खुद से ही मुकरती है,
अब जैसे तुम्हे सुनकर मैंने दिलचस्प पाया,
शायद सुनते देख मुझे तुमने ख़ास पाया,
मुझे सुनने में तुम्हारी दिलचस्पी कभी दिखी नहीं,
फिर भी तुम्हारा कहना है --
कभी तुम मेरी हर बात ध्यान से सुनते थे,
कभी तुम मेरी हर बात ध्यान से सुनते थे,
सच? वो कौन सी बातें थी?
क्या उन बातों में मैं थी?
खैर छोड़ो,
गयी बात की क्या बात,
पर हाल फिलहाल जब पलटकर तुमने कहा,
'आई ऍम सॉरी',
तो लाज़वाब कर गए मुझे --
अफ़सोस जता रहे हो,
या माफ़ी बज़ा रहे हो
इस उलझन में चुप ही रही मैं !
तुम अंग्रेजी में कहते हो,
मैं हिंदी में सुनती हूँ
कही-सुनी महसूस कौन भाषा में की? क्या मालूम !
लिखे पढ़े लोग इन अल्फाजों की चुस्कियों में और जैसे आनंद ने कहा
"'हर बार (कुछ नया) बनाने का रोमांस,
गिराता है एक बनी इमारत की नींव',
और मेरे लिए तुम ख़ास नहीं !