Sunday, 13 April 2014

मैं भारतीय गोली से मरना चाहता हूँ

tr from Robin S. Ngangom's English tr of Thangjam Ibopishak's Manipuri Poem, 'I want to be killed by an Indian Bullet'. From The Oxford Anthology of Writings From North-East India, 2011, pg. 56-57

वो मुझे ढूंढ रहे हैं यह ख़बर मैंने बहुत पहले सुनी; सुबह में, दोपहर में, रात में।  मेरे बच्चों ने मुझे बताया, मेरी पत्नी ने बताया मुझे । 

एक सुबह घुस आये वो मेरी बैठक में, वो पाँचों। अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश - जिन पाँचों के नाम हैं। वो आदमी बना सकते हैं; मिटा भी सकते हैं झक से। वो जो चाहे कर सकते हैं। पराक्रम के अवतार हैं। 

मैंने उनसे पूछा: 'कब मारोगे आप मुझे?'
लीडर बोला: 'अभी। बस अभी मारेंगे हम तुझे। आज बहुत शुभ दिन है। अपनी प्रार्थना कहो। क्या नहा चुके हो? क्या खाना खा लिया तूने ?

'आप क्यों मारेंगे मुझे? क्या है अपराध मेरा? क्या जुर्म किया है मैंने ?' मैंने उनसे फिर पूछा। 
'क्या तू ही वो कवि है जो लिखता है अंट-शंट और बकवास? या तू खुद को दिव्य शक्ति वाला संत समझता है? या फिर तू कोई पागल है?', लीडर ने पूछा। 

'मैं जानता हूँ कि पहली दोनों चीज़ों में से एक भी नहीं हूँ मैं। आख़िरी के विषय में आप को नहीं बता सकता। मैं खुद कैसे कह सकता हूँ की पागल हूँ या नहीं मैं ?'

लीडर बोला: 'तुम जो चाहे वो बन सकते हो। हमें इससे या उससे मतलब नहीं। हम तुझे मारेंगे अभी। हमारा मिशन है आदमियों को मारना ही।'

मैंने पूछा: 'किस तरह मारोगे आप मुझे? क्या छुरी से काटोगे? गोली मारोगे? या डंडे से पिटोगे मुझे?'
'हम गोली से उड़ायेंगे तुझे।'

'फिर किस बन्दूक से मारोगे मुझे? भारत में बनी या किसी और देश में ?'

'विदेशी। वो सब की सब बनी हैं जर्मनी में, रूस में, और चीन में। भारत निर्मित बंदूकों का हम उपयोग नहीं करते। अच्छी बंदूकें छोड़ो, प्लास्टिक के फूल भी नहीं बना सकता भारत। प्लास्टिक के फूल बनाने को कहो तो भारत केवल टूथब्रश पेश करता है।'

मैं बोला - 'यह तो अच्छी बात है। बिना खुशबू के प्लास्टिक के फूल किस काम के?'
लीडर बोला: 'कोई भी कमरा सजाने के लिए गुलदस्ते में टूथब्रश नहीं रखता। जीवन में थोड़ी सजावट जरूरी है।'

'चाहे जो भी हो, अगर आप मुझे मारना ही चाहते है तो कृपया भारत में बनी बन्दूक से मारिये। मैं विदेशी गोली से नहीं मरना चाहता। देखिये, मुझे भारत से बहुत प्यार है।'

'ऐसा तो कभी हो नहीं सकता। तुम्हारी इच्छा कभी पूरी नहीं होगी। हमारे सामने कभी भारत का जिक्र भी मत करना।'

ये कहते हुए वो चले गए मुझे मारे बिना; मानो उन्होंने कुछ किया ही नहीं।
ऐसे मौत के लिए अपनी नखरेबाजी से मैंने अपनी जान बचा ली। 

फ़तह

tr. from Desmond Kharmawphlang's English tr of his Khasi Poem, 'The Conquest'. From The Oxford Anthology of Writings From North-East India, pg. 61-62, 2011. 

अपने शहर की बात करते 
मैं कभी नहीं थकता। 
गर्मियों में गर्भित आकाश 
भावी बरसात से भरा,
सर्दियां पहुंची, अनमने सूरज के साथ 
छूती अकड़ी हई पहाड़ियां, झील पे 
ख्वाबों की कश्तियाँ । 

बहुत पहले, आदमी सुरमा के पार गए 
कारोबार करने, औरतों को घर लाने 
अपने वंश को बढ़ाने । 

फिर अंग्रेज आये 
सौगात लिए गोलियों, सुपारियों 
और धर्म की। 
लगातार जीत की तमंचे की नौंक पर 
शुरूआत हुई।  

अचानक, अँगरेज़ चले गए। 
तब सुकून था, फिर से थी सौंधी 
खुशबू भीगी पत्तियों की । 

पर समय की बदलती चाल से  
वो आये जो थे तपते मैदान से, 
हर जगह से। 

ऐ जख्मी जमीं, कैसे चाहते हैं वो 
तेरी भरपूर मिटटी, तेरी घायल औलादें। 
उनमें से एक ने मुझे बताया, 'जानते हो, 
तुम्हारा शहर वाक़ई महानगर है।' 

Saturday, 12 April 2014

वक्त नही गुज़रता

tr from Anmole Prasad's English tr of Rajendra Bhandari's Nepali poem, 'Time Does Not Pass'. From Dancing Earth: An Anthology of Poetry from North-East Indiapg. 25-26, 2009. 

दादा, खेतों तक जा पाये उतने सक्षम नहीं रहे 
पिछले बरस, छड़ी लिए वो चौक तक पहुँच जाते थे,
इस बार बस बरामदे तक जा पाये।  
तीन दिन कारावास के बाद, दादा गुज़र गए। 
दादी गुज़र गई ।

फिर माँ मुरझाने लगी 
पहले पहल, वो बाजार से अलग हुई,
फिर चौक से आँगन में सिमटी। 
आँगन से वो चौक में सूखते दाने के लिए हौवा बनी। 
उसकी आँख से रोशनी चली गयी 
उसके पैरों से, खड़े होने की ताकत 
फिर जैसे जैसे उसकी तमन्नायें जाने लगी 
वो खुद-ब-खुद गुज़र गयी ।

एक दिन, एक बनैली लड़की ने मुझसे छेड़-छाड़ की 
पर शांत तालाब के माफिक, मैं किनारे रहा। 
मेरा यौवन गुज़र रहा था।

पीले पतझड़ में, खेतों में
धान भूसा बन रहा था, 
फसल खाद बन चुकी है 
दुनिया हर रोज़ अपने आप गुज़र रही है। 
वातावरण ओजोन के मुँह जा रहा है। 
मुरझाते फूलों और सुखी पत्तियों के साथ  
पत्ती और शाख़ का मुरझाना,
कली और फूल का मुरझाना, 
इन बिदाईयों के बाद 
दबंग कमल भी धरती से मिट गए।  
पर वक्त नहीं गुज़रा  
वक्त अब है ही नहीं
वक्त गुज़रता, अगर होता थोड़ा भी । 

Friday, 11 April 2014

बॉर्डर

tr from Bampada Mukharjee's English tr of Narendra Debbarma's poem in Kokborok, 'The Border'.  From The Oxford Anthology of Writings From North-East India, pg.101, 2011.

हम खड़े थे, कस्बे के तालाब तले  
जब मेरी सात साल कि बेटी बोली -
"देखो, बाबा वहाँ ट्रेन खड़ी है 
आओ हम उसमें चलें।"

"नहीं", मैं बोला,
"यहीं तक है हमारी हदें
हम नहीं लांघ सकते बॉर्डर 
और जाते सकते उस परे। "

छोटी सी मेरी बच्ची नहीं समझी 
चकित हो, वो पूछी, "कहाँ है बॉर्डर?
यही जमीन फैली है वहाँ से यहाँ
क्यूँ नहीं जा सकते हम वहाँ?"

मैंने जितना चाहा उसे सीमा दिखाना 
उतना ही उसने भी चाहा मुझे मुद्दा समझाना । 
कैसे भी वो समझने वाली नहीं थी 
कैसे भी वो मानने वाली नहीं थी । 

अपने मन ही में, मैं बोला 
तुम हो एक मासूम बच्ची 
और इसीलिए, हा  
तुम नहीं जानती 
कहाँ बस्ते हैं बॉर्डर !
अगर तुम बड़ी होती तो देख पाती -
बॉर्डर बताते खम्बे 
उतना दीखते नहीं बाहर खड़े 
जितना इंसानों के मन भीतर छुपे ।