एक हाथ का पंछी,
एक आस का भंवरा,
कभी आफताब के लिए मचलता है,
कभी बद्र के लिए तरसता है,
अब तुम्हे कैसे कहूं
ऐ दोस्त,
मखरूर मन मेरा,
किस कैफीयत में,
दर बदर भटकता है !
और; अगर कह भी दूं
तो क्या हासिल ?
ना मंज़र में मन मेरा,
ना खुद पे मैं फाज़िल
एक आस का भंवरा,
कभी आफताब के लिए मचलता है,
कभी बद्र के लिए तरसता है,
अब तुम्हे कैसे कहूं
ऐ दोस्त,
मखरूर मन मेरा,
किस कैफीयत में,
दर बदर भटकता है !
और; अगर कह भी दूं
तो क्या हासिल ?
ना मंज़र में मन मेरा,
ना खुद पे मैं फाज़िल
5 comments:
Nice lines Shalini
really superb poem
loving it
specially this lines
मखरूर मन मेरा,
किस कैफीयत में,
दर बदर भटकता है !
@Arun and chirag: am glad you liked it. Do visit more often :)
badhia hai, maza aa gaya. liked the closure. likhte raho bandhu...
Arrey wah! kis kaifiyat se maine google translator par apke lafzon ke arthat khojne ki koshish ki hai :-)
Jokes apart...
Very profound !
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