एक हाथ का पंछी,
एक आस का भंवरा,
कभी आफताब के लिए मचलता है,
कभी बद्र के लिए तरसता है,
अब तुम्हे कैसे कहूं
ऐ दोस्त,
मखरूर मन मेरा,
किस कैफीयत में,
दर बदर भटकता है !
और; अगर कह भी दूं
तो क्या हासिल ?
ना मंज़र में मन मेरा,
ना खुद पे मैं फाज़िल
एक आस का भंवरा,
कभी आफताब के लिए मचलता है,
कभी बद्र के लिए तरसता है,
अब तुम्हे कैसे कहूं
ऐ दोस्त,
मखरूर मन मेरा,
किस कैफीयत में,
दर बदर भटकता है !
और; अगर कह भी दूं
तो क्या हासिल ?
ना मंज़र में मन मेरा,
ना खुद पे मैं फाज़िल