Tuesday 20 November 2012

पिछले पखवाड़े

पिछले एक पखवाड़े सेकुछ ऐसा लिखना चाहती थी
जो मेरे, तुम्हारे, हमारे बारे में ना हो;
जिसमें मैं, तुम, या हम ना हो;
जिसे पढ़ कर ये ना लगे
कि कोई सिरा तुमसे अब भी जुड़ा है;
ऐसे हर सिरे को ख़बरो की तरफ मोड़ दिया,
ख़बरो से किसी को लगाव नहीं होता
पर हर खबर, अतरंगी दुनिया से जोड़ते हुए,
केवल दो पाटो का आईना है - गया कल और आता कल
इनके बीच खामखाँ गुमसुम बीतता- अब
भर जाना लबो तक एक हिचकी;
खुद पर ही खीझती झिझक
सिलसिलेवार अखबारो की तह में भी
कोई मैं, तुम, और हम ढूंढ ही लेती है;
ख़ामोशी की सर्द दीवारें पिघलने लगती है;
और, मैं सोचती हूँ कि क्या लिख दूं 
क्यूँ,
ताजे आंकड़ों के अनुसार,
इन पन्नों को उलटने पलटने तुम भी आये थे इस पखवाड़े ?