Monday, 2 July 2018

उलझन

कल 
मेरे रुमाल की हर एक गाँठ
किसी ख़ास ख़्वाहिश की दास्ताँ थी
जिसमें तुम थे और मैं थी।
आज
खुली गाँठें, 
रुमाल की सिलवटों में
जिरह कर रहे हैं
जिसमे तुम हो और मैं भी।

1 comment:

Anonymous said...

Subtle😢