वो मचान
जहाँ तुम चढ़े बैठे हो,
उससे सब छोटा ही दीखता है,
शायद ऐसा भी लगता हो
कि; सब तुम से ही है
जैसे कोई छिपकली हो,
छत से ऐसा जुड़ाव
कि गोल गोल आँखो का मुआयना
खुद तक ही
सीमित रहे,
लगे कि वो नीचे उतरी
दुनिया उथलपुथल हो जाए शायद;
तुम्हे देखकर मैं सोचती हूँ;
उससे सब छोटा ही दीखता है,
शायद ऐसा भी लगता हो
कि; सब तुम से ही है
जैसे कोई छिपकली हो,
छत से ऐसा जुड़ाव
कि गोल गोल आँखो का मुआयना
खुद तक ही
सीमित रहे,
लगे कि वो नीचे उतरी
दुनिया उथलपुथल हो जाए शायद;
तुम्हे देखकर मैं सोचती हूँ;
वो छिपकली कैसे होतीं हैं
जो जमीन पर घूमती मिल जाती हैं,
क्या वो अचानक जमीन पर गिर जाती हैं
और उससे जुड़ जाती हैं?
या कभी यूँ ही कुछ हो जाता है कि;
छत से अपने जुड़ाव,
उससे दूर होने के अलगाव
को एक छलांग में भूल जाए,
पैराशूट खुल जाए मानो,
डर त्रिशंकु बन पीछे छूट जाए
और तुम उतर आओ जमीन पर;
पता चले,
छत से चिपकी रहने वाली छिपकली
आखिर क्या पर पाती है
नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे
आने वाली ही तो
सिंहगढ़ का किला दिलाती है |
जो जमीन पर घूमती मिल जाती हैं,
क्या वो अचानक जमीन पर गिर जाती हैं
और उससे जुड़ जाती हैं?
या कभी यूँ ही कुछ हो जाता है कि;
छत से अपने जुड़ाव,
उससे दूर होने के अलगाव
को एक छलांग में भूल जाए,
पैराशूट खुल जाए मानो,
डर त्रिशंकु बन पीछे छूट जाए
और तुम उतर आओ जमीन पर;
पता चले,
छत से चिपकी रहने वाली छिपकली
आखिर क्या पर पाती है
नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे
आने वाली ही तो
सिंहगढ़ का किला दिलाती है |
3 comments:
hmm. Good one Shalini. Never was aware of this side of your life. This could be a very good short story . . . try it
छत वाली छिपकली का मुआयना, वाकई काफी भारी पड़ता है हम लोगों पर. :-) रही बात ज़मीन वाली छिपकली की, अगर सब छिपकलियाँ नीचे ही उतर आयें, तो दुनिया का क्या हाल हो!
बेहतरीन poem थी ये, जबकि title देख के एक बार को तो मैं डर ही गयी थी. :)))
badhiya ban pada hai...naya layout bhi accha hai
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