लिखना तो बहुत कुछ था
पर कैसे लिखूंकि ख़्वाबो कि स्याही काली क्यूँ है,
क्यूँ नीले सुनहरे आसमान
का रंग बर्फीला हो गया,
कैसे धानी घास
दूब से मुंह मोड़े है,
और क्यूँ हर शरारत
हर हरकत से हैरां ये शाम है?
१९४७ में रंगीले ख्वाब जो
हमने धानी घास से सुनहरे आसमान को देखते बुने थे;
वो अब बर्फीली दूब के साथ इस शाम के हमसफ़र हैं
और हम तुम जो हैं भी और नहीं भी,
इन्हें देखतें हैं और सोचतें हैं
क्या लिखें, किसे लिखें;
क्यूंकि किसी क्रांतिकारी की याद अब
सहानुभुतिक अपराध है,
नियामगिरि, जैतापुर, कून्दकुलम में सत्याग्रह
राष्ट्रद्रोह कहलाता है,
लिखने-पढने या कुछ गढ़ने की आज़ादी से
संविधान नाराज़ हो जाता है,
और ऐसा क्यूँ कर हो ये पूछा
तो हम और हमारे प्रश्न दोनो ही माओवादी होतें हैं,
गाँधी के तीन बन्दर आने वाले कल की तस्वीर है
जिनके गले में तख्ती बंधी है-
'आज़ादी वो जेल है जिसकी हदें हम खुद तय करते है',
ना बोले, ना लिखें, ना पढ़ें, ना सोचें, ना समझें,
ना कहें, ना पूछें, ना हँसे, ना रोयें-
-आज़ादी की शर्तें साफ़ हैं
पर ख़्वाबो की गैरत तो देखिये
स्याही बने जा रहे हैं
और इसी स्याही से धानी घास पर कुछ लिखें जा रहे है ....
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