Thursday, 31 May 2012

टूटते मकान

Photo by Javed Iqbal
बंद दरवाजों के सामने
आज पहरेदार हैं कईं |
गारे मिटटी के इंसान,
गारे मिटटी के मकान,
इंसानो के भी;
मकानो के भी;
आज खरीदार हैं कईं |
ठहरी सी, उलझी सी
देहरी पर खड़ी है ज़िन्दगी
कभी अन्दर पनपती थी
आज बाहर सुलगती सी
सिसकना भूलकर
टूटती दीवारों के साथ
बिखरते रिश्तों को ताकती
छटपटाती, सीता
अटपटे सवालो से झूझती,
'कानून मेरे लिए? मैं कानून के लिए?
या, मैं भी कानूनन ही हूँ, बस यूँ ही?'
ना रोजी, ना रोटी
और अब बाकी इंट पत्थर के निशाँ भी नहीं
इस रामराज्य में, इंसान के कम
कानून के सिपहसलार हैं कईं |

Please see: Days of Demolition, a Photo album by Javed Iqbaal
Also, Day after demolition attempt

No comments: