Monday, 3 October 2011

कुछ और बात...

तुतलाती हुई
जो लब पर आकर रुके ना
जो तब और अब की
देहलीज़ पर, खड़ी सोचती न रहे;
न पड़े इन झंझटो के बीच
की; अब हम आपके हैं कौन ?
उलझनों में जो,
बिना सर पैर के मचले एक बार फिर
और; थोड़ी अंगडाई लिए
साथ उड़ान के नए अंजुमन करें दाख़िल,
पुराने हर सिलसिले से परे;
चलो, अब कुछ और बात करें...

Wednesday, 14 September 2011

कशमकश

आज बहुत देर अपने शहर को मैंने सुना
और; तुम बहुत याद आये,
तुम, जो साथ नहीं आये;
आते, तो मुझे वहीं पाते;
जहां ख़्वाबो का आशियाँ है;
आशियाँ वो, जो उस रात हमने बुना था;
जब दरमियान हमारे एक काफिला चला था;
काफिले में रंगीनियाँ थी;
रंगो में झूमते हमने उस शहर को चुना था;
आज बहुत देर अपने शहर को मैंने सुना,
और तुम बहुत याद आये;
तुम क्यूँ साथ नहीं आये?

Friday, 5 August 2011

मैं का से कहूं ?

मैं का से कहूँ; ओ री सखी,
क्यूँ आये मोहे लाज |
सब प्रश्नो में धीर धरूँ मैं
फिर क्यूँ ;
मन घुंघरू बन बाजत आज?
मैं का से कहूँ ओ री सखी,
क्यूँ आये मोहे लाज |
जिया घबराए;
बूझ ना पाए,
क्या है दूर, क्या साथ? सखी री,
मैं का से कहूँ; ओ री सखी,
क्यूँ आये मोहे लाज |
वो हँस दीने;
झीने झीने,
प्रीत में बांधे सुर सात, सखी री,
पलकों से अपनी मुझको देखा;
फिर झट बंद कर ली बाट, सखी री,
इन से परे सब दूर है राधे,
इन में समाये तो साथ |
मैं का से कहूँ; ओ री सखी;
क्यूँ आये मोहे लाज |
उनके नयनो ने;
एक ही पल में,
पट खोल दिए सारे आज! सखी री;
पट खोल दिए सारे आज!
मैं का से कहूँ, ओ री सखी;
क्यूं आये मोहे लाज...

Thursday, 4 August 2011

Middle dichotomy

I have often wondered which is more free,
roots that explore the depths;

branches that explore the heights;
or is it the stem that anchors the two;

keeping both in sight?
Fuck, comes a friend's response
its your 'middle class' talking
not letting free and not letting go
but keeping the disguise quite!

Friday, 22 July 2011

बेइत्तिफ़ाक़ि

एक हाथ का पंछी,
एक आस का भंवरा,
कभी आफताब के लिए मचलता है,
कभी बद्र के लिए तरसता है,
अब तुम्हे कैसे कहूं
ऐ दोस्त,
मखरूर मन मेरा,
किस कैफीयत में,
दर बदर भटकता है !
और; अगर कह भी दूं
तो क्या हासिल ?
ना मंज़र में मन मेरा,
ना खुद पे मैं फाज़िल

Thursday, 21 July 2011

Juggler's Act

some words of caution;
and bits of advise,
'love...its nature is abrupt', says akhil
anil says, "these are difficult times"
for; between the two what is it,
that would suffice?
that must survive fire and
cut through ice?
looking for a vise;
I juggle,
when I want to speak about love;
I write about struggle.

Monday, 18 July 2011

केंचुओं

तुम कहाँ हों ?
गीली मिटटी में गट्ठे पड़े देख;
उनसे गुजरती सुरंग को देखा .
पर तुम नहीं मिले.
तुम्हारी खोज खबर लेने अक्सर निकल पड़ता है मेरा एक दोस्त;
उसे बर्दाश्त नही कि झूले के चाव में मैं तुम्हे भूला बैठूं;
हो सकता है कल के अखबार में गुमशुदा कॉलम में तुम्हारा जिक्र हो;
यह भी हो सकता है कि अपनी बनायीं सुरंगो में तुम गुमसुम बैठे हों,
पर, कहीं खुले में उठते बैठते, गिरगिट से पलटते, उलटते और हर चीज़ पर फिसलते;
दो हाथो से लडखडाती जबान को सँभालते,
इस जीव को देखकर तुम्हे वही तो नहीं हो गया जिसे ये 'Identity crisis' कहता है?
आस्तित्व की इस लड़ाई में हार मत जाना दोस्त,
तुम्हारी मिटटी को इसने रसायनों से भले ही घायल कर दिया हो
पर नरम से कड़क होती अपनी प्रेमिका को तो देखो,
उसका प्रतिरोध ही तुम्हारा होसला है,
तुम्हारे स्पर्श को तरसती,
सरस ही बिखरती
बरबस टकटकी बाँध तुम्हे ढूँढती,
अपनी बेखुदी में बस इतना ही पूछती
...केंचुओं तुम कहाँ हों ?

Also check:
India’s soil crisis: Land is weakening and withering

Saturday, 25 June 2011

घुसपैठिया

इन शब्दो की अजब माया है
कभी कविता बन बहते हैं
और कभी चुप्पी की कसक सहते हैं,
और ये चुप्पी भी कम नहीं,
कभी विराम दे आलिंगन सी चहकती है
और कभी शब्दो से अलग थलग सुलगती है
एक आगाज़ तो दूसरा मौन
समझ नहीं आता की
घुसपैठिया कौन!

Wednesday, 1 June 2011

आहट

सुनो, क्या तुमने आहट को देखा है?
आहाते में हंसी ठट्ठा करती,
हवा से नोक जोख कर,
दरवाजो के मुंह पर तनकर खड़ी होती;
जैसे ललकार रही हो - क्यूँ चुप हो बाहर आओ,
और; जब मैं मुंडेर से नीचे झाँख
अपने किसी खोये ख़याल से रूबरू होने की आस में
नीचे जाती, तो वही आहट झट से चुप्पी ओढ़ लेती;
और गर्मियो में हमारे बीच ये लुक्का चुप्पी का खेल
वैसा ही हो जाता
जैसे बदलाव के सपने देखती जनता का,
दिल्ली के तुनकमिजाज़ सरमयादारो से होता है;
जिनके लिए कब कोई अन्ना ख़ास हो जाए,
या कब कोई मेधा पीछे छूट जाए;
इस तानेबाने को समझने में,
पसीने से तरोब्दार आम आदमी
केवल तिलस्मी बदलाव के सपने देखते रह जाता है;
और हक्काबक्का हो, मिडिया के सवालो पर कान गडाता है.
हर खबर जब आम भी हो और खास भी;
हर कहानी जब किसी का गुणगान भी हो'
और किसी से नाराज़ भी,
हेड्लाईनो में खुद को ढूँढता सा आम ये आदमी,
'मिडल क्लास' के बानगी खुद को नज़रबंद पाता है
तब कुलबुलाता हुआ हरारत से,
मुठी बंद हाथो को नारो के जोश में धकेलता हुआ;
'नज़रबंदी में हरकत जरूरी है'
ये समझता हुआ, समझाता हुआ,
निकल पड़ता है आहट बनकर मजबूत दरवाजो से भीड़ जाने;
कभी चीख कर, कभी चुप्पी से तो कभी किसी नई हलचल से चौकाने,
अभी अभी खबर मिली किसी ने फिर से १४४ की निष्ठुर-रेखा को उठा फेंका है,
सुनो, क्या तुमने आहट को देखा है?

बस, यूँ ही

आज बहुत दिनो के बाद तुम्हे याद किया है
और कारण कुछ बड़ा नहीं,
कभी हर शाम तुमसे मिलना होता था,
कुछ कहना होता था;
कुछ सुनना होता था,
कभी गर्म चाय के साथ ठहाके होते थे,
सर्द रात में मूलचंद के परांठे होते थे;
कभी किसी थिएटर में फिल्म का लुत्फ़ लेने की चहल होती थी,
और इन सब के बीच एक दुसरे को ढूँढने की पहल होती थी;
फिर भी बहुत कुछ अनकहा-अनसुना रहा...
तुम्हारा अपने दायरो को छुपाना,
मेरा अपने सपनो को बताना,
और खुद को बस कुछ लम्हो से बहलाना ,
इन में बंध जाते तो और बात होती;
साथ आगे बढ़ जाते तो और बात होती;
पर, हम एक दुसरे के सच को टटोलते रहे,
इन्द्रधनुषी लगाव में बंधते भी गए;
और कहीं पीछे छुटते भी रहे ,
आज निजामुद्दीन में चाँद निजामी के साथ साथ,
मै भी कुछ गुनगुना रही थी,
मानो इतेफ्फाक से लोगो को मिलाने वाले,
इस शहर को कुछ सुना रही थी,
तभी, एक दोस्त ने मेरे हाथो में 'जाने भी दो यारो' पकडाई'
सच, उस एक पल में ग़ालिब की बहुत याद आई!