आज बहुत दिनो के बाद तुम्हे याद किया है
और कारण कुछ बड़ा नहीं,
कभी हर शाम तुमसे मिलना होता था,
कुछ कहना होता था;
कुछ सुनना होता था,
कभी गर्म चाय के साथ ठहाके होते थे,
सर्द रात में मूलचंद के परांठे होते थे;
कभी किसी थिएटर में फिल्म का लुत्फ़ लेने की चहल होती थी,
और इन सब के बीच एक दुसरे को ढूँढने की पहल होती थी;
फिर भी बहुत कुछ अनकहा-अनसुना रहा...
तुम्हारा अपने दायरो को छुपाना,
मेरा अपने सपनो को बताना,
और खुद को बस कुछ लम्हो से बहलाना ,
इन में बंध जाते तो और बात होती;
साथ आगे बढ़ जाते तो और बात होती;
पर, हम एक दुसरे के सच को टटोलते रहे,
इन्द्रधनुषी लगाव में बंधते भी गए;
और कहीं पीछे छुटते भी रहे ,
आज निजामुद्दीन में चाँद निजामी के साथ साथ,
मै भी कुछ गुनगुना रही थी,
मानो इतेफ्फाक से लोगो को मिलाने वाले,
इस शहर को कुछ सुना रही थी,
तभी, एक दोस्त ने मेरे हाथो में 'जाने भी दो यारो' पकडाई'
सच, उस एक पल में ग़ालिब की बहुत याद आई!