Tuesday, 20 November 2012

पिछले पखवाड़े

पिछले एक पखवाड़े सेकुछ ऐसा लिखना चाहती थी
जो मेरे, तुम्हारे, हमारे बारे में ना हो;
जिसमें मैं, तुम, या हम ना हो;
जिसे पढ़ कर ये ना लगे
कि कोई सिरा तुमसे अब भी जुड़ा है;
ऐसे हर सिरे को ख़बरो की तरफ मोड़ दिया,
ख़बरो से किसी को लगाव नहीं होता
पर हर खबर, अतरंगी दुनिया से जोड़ते हुए,
केवल दो पाटो का आईना है - गया कल और आता कल
इनके बीच खामखाँ गुमसुम बीतता- अब
भर जाना लबो तक एक हिचकी;
खुद पर ही खीझती झिझक
सिलसिलेवार अखबारो की तह में भी
कोई मैं, तुम, और हम ढूंढ ही लेती है;
ख़ामोशी की सर्द दीवारें पिघलने लगती है;
और, मैं सोचती हूँ कि क्या लिख दूं 
क्यूँ,
ताजे आंकड़ों के अनुसार,
इन पन्नों को उलटने पलटने तुम भी आये थे इस पखवाड़े ?

Thursday, 6 September 2012

क्यूँ नर्बदा?

Photo by Pallav Thudgar
नर्बदा, क्यूँ तुम ही नहीं मुड जाती*
दिल्ली कि ओर;
कंपकपाती यमुना को ले
घेर लेती चीलों की संसद को?
क्यूँ, नर्बदा तुम भी
उंगली पकडे खड़ी हो;
हजारों उन चिंगारियों
को तेल देती?
नर्बदा, क्यूँ तुम ही नहीं
चट्टानों को चींर नया रास्ता बना देती,
उजाला जो दीयों तले है सब ओर फैला देती?

*नर्मदा घाटी में आम बोलचाल का हिस्सा

Wednesday, 5 September 2012

एक श्रद्धांजलि फोन को

इस फ़ोन से कुछ अजीब ही रिश्ता था,
कुछ बेहतरीन समय इसने साथ देखे सुने
और; कुछ बेंतहा मुश्किल लम्हे इसने साथ गुजारे,
याद है कैसे बार बार हाथ लपक संभाल लेते थे
इस छोटे से दोस्त को; जब
इसपर ही कंई छोटे बड़े कर्येक्रमो की प्लानिंग होती थी,
घंटो इसे अपने कान से लगा;
कागजों पर आड़े तिरछे अक्षर लिखती रहती,
इस ओर से कुछ बोलती थी;
उस पार से साथी कुछ कहते थे,
फिर भी; एक साझेदारी थी
साथ संघर्ष करने की,
संघर्ष में साथ आगे बढ़ने की;
और ये दोस्त हमसफ़र ही तो था,
हाँ; कभी कभी इसकी बैटरी थक जाती थी,
लेकिन बिजली की तरंगो में खुद को झोंक तैयार हो जाती थी,
एक बार फिर उर्जा भर देने;
दोनों फिर लग जाते थे कुछ सुनने कुछ बोलने,
इस सुनने- सुनाने की प्रक्रिया में कुछ सपने बुनने;
इन सपनो का ताना बाना केवल सामाजिक था,
ये भी पूरा सच नहीं;
इसने भी कुछ अपनों का अंहकार देखा है,
कुछ अपनों का तिरस्कार सहा है;
कुछ संगी साथी इसी पर जुड़े,
कुछ से इसने समय- स्थान अंतर के बावजूद जोड़े रखा;
इसने भी अपनों की प्रतीक्षा
और; इन जटिल संबंधो की समीक्षा दोनों ही की,
इस प्रश्न को इसने भी कंई बार सुना,
- 'आखिर जब रिश्ते जोड़ने हो या तोड़ने
तब अधिकांश लोग क्यूँ फ़ोन की आड़ लेते हैं?'
वही फ़ोन जो बैटरी के बिना चल नहीं सकता;
जिसके बिना उससे कोई स्वर निकल नहीं सकता;
वही जो जब चल पड़ता है, तब एक औजार बन जाता है;
यह इस समय की निर्बलता है, या इस तकनीक की दुर्बलता?
फ़ोन आज फिर भौतिकतावाद में इंसानी रिश्तों का नया स्वरुप समझाता है;
और ना जाने कैसे तसल्ली देते हुए एक सच भी सुनाता है,
'बैटरी-फ़ोन-स्वर-तकनीक' के रिश्ते को नारीवादी लेंस से देख लेना भर नारीवाद नहीं
उसके प्रश्नो की धार में छुपे दंभ की काट ढूंढना नारीवाद है
ये वो दंभ है जो कोई पुरुष किसी महिला को नहीं सिखाता लेकिन जो दृष्टि का हिस्सा बन जाता है,
शरारती चुहल में ये अन्तिम चुटकी लेता है,
'अभी तो तुमने देखा क्या है, आगे आगे देखो इन्टरनेट क्या क्या दिखलाता है';
तब इसे कानो से लगाये, सोचती रह जाती हूँ और ना जाने कब कमबख्त सीने से लग जाता है|


Thursday, 30 August 2012

प्रकृति और पुरुष

मैंने पूछा,
'क्या हाल चाल?'
तुमने कहा,
'जंगलों को देखो, कट गए, छट गए
जमीन और तालाब जाने कहाँ सिमट गए'
मैंने पूछा,
'और सब ठीक?'
तुमने कहा
'जुगनू, पतंगे, केंचुए सब कहीं खो गए
सूरज को ढूंढते, मुंह ढाप सब सो गए'
मैंने पूछा,
'कैसे हो?'
तुमने कहा,
'सब तरफ शोर है, हर मुंडेर एक मोर है
कौए कोयला खा गए, क्या रात क्या भौर है'

तुमने पूछा,
'ठीक हो?'
(तुमने पूछा, अच्छा लगा)
मैंने कहा,
मैंने कुछ नहीं कहा
प्रकृति क्या कहे, किससे?
जवाब सुनने के लिए कोई नही था..


Monday, 2 July 2012

For You (By Arpita Gaidhane)

Words overflowed, overlapped, collided
Time warped itself into a liquid current
Laughter and pain, erratic, we shared
In no set pattern, just the rhythm of life
Life to be lived, to be loved, to be found
In the everyday nothings that were our own
No one else could give or take that life
I learned from patience, actions and words
Today a woman: confident, uncertain,
Will leave with a shadow of your spirit
Following your path, I make my own
Jumping off the cliff, to either fly or fall
Forevermore they will shield my wings
Those patience, actions and words you had
For meandering conversations, questions
and doubts, that forged a blade of strength
Forevermore I will look back, grateful
for the timeless words that said all and nil
Words that overflowed, overlapped, collided
To enter the warped liquid current of time
And in no pattern, the rhythm of our lives
continues softly, and the rest is silence.


Saturday, 9 June 2012

पैमाने

आज की रात के बहाने बहुत, हमारी सुबह के ठिकाने बहुत ।
था ख़ास दरमियाँ कुछ भी नहीं,पर मदहोशियो के सिरहाने बहुत ।।

चंद लफ़ज़ो को पलको पे उठाये, देखे तुम्हारे नजराने बहुत।
तुम्ही में संजोये गलियारे बहुत, तुम्ही में खोये चौबारे बहुत ।।

किसी से तुम्हारी शिकायतें बहुत, तुम से हमारी ख्वाहिशें बहुत ।
ऐसे बने अपने फ़साने बहुत, खामोशियो की ज़बाने बहुत ।।

बा मकसद दिल्लगी के निशाने बहुत, यूँ तो आये हमें भी समझाने बहुत ।
पर दिल्लगो में इत्तेफाकी बहुत, और दिल की लगी की मिसाले बहुत ।।

महफूज़ थी जो परछाई बहुत, तफसील से आज बतायी बहुत ।
तुम्हे प्यारे तुम्हारे माझी बहुत, हमारी उमीदें रूमानी बहुत ।।

हासिल सभी को मयखाने बहुत, हमारे-तुम्हारे पैमाने बहुत ।
आज की रात के बहाने बहुत, हमारी सुबह के ठिकाने बहुत ।।


Thursday, 31 May 2012

टूटते मकान

Photo by Javed Iqbal
बंद दरवाजों के सामने
आज पहरेदार हैं कईं |
गारे मिटटी के इंसान,
गारे मिटटी के मकान,
इंसानो के भी;
मकानो के भी;
आज खरीदार हैं कईं |
ठहरी सी, उलझी सी
देहरी पर खड़ी है ज़िन्दगी
कभी अन्दर पनपती थी
आज बाहर सुलगती सी
सिसकना भूलकर
टूटती दीवारों के साथ
बिखरते रिश्तों को ताकती
छटपटाती, सीता
अटपटे सवालो से झूझती,
'कानून मेरे लिए? मैं कानून के लिए?
या, मैं भी कानूनन ही हूँ, बस यूँ ही?'
ना रोजी, ना रोटी
और अब बाकी इंट पत्थर के निशाँ भी नहीं
इस रामराज्य में, इंसान के कम
कानून के सिपहसलार हैं कईं |

Please see: Days of Demolition, a Photo album by Javed Iqbaal
Also, Day after demolition attempt

Friday, 25 May 2012

छिपकली

वो मचान
जहाँ तुम चढ़े बैठे हो,
उससे सब छोटा ही दीखता है,
शायद ऐसा भी लगता हो
कि; सब तुम से ही है
जैसे कोई छिपकली हो,
छत से ऐसा जुड़ाव
कि गोल गोल आँखो का मुआयना
खुद तक ही
सीमित रहे,
लगे कि वो नीचे उतरी
दुनिया उथलपुथल हो जाए शायद;
तुम्हे देखकर मैं सोचती हूँ;
वो छिपकली कैसे होतीं हैं
जो जमीन पर घूमती मिल जाती हैं,
क्या वो अचानक जमीन पर गिर जाती हैं
और उससे जुड़ जाती हैं?
या कभी यूँ ही कुछ हो जाता है कि;
छत से अपने जुड़ाव,
उससे दूर होने के अलगाव
को एक छलांग में भूल जाए,
पैराशूट खुल जाए मानो,
डर त्रिशंकु बन पीछे छूट जाए
और तुम उतर आओ जमीन पर;
पता चले,
छत से चिपकी रहने वाली छिपकली
आखिर क्या पर पाती है
नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे
आने वाली ही तो
सिंहगढ़ का किला दिलाती है |


Monday, 21 May 2012

स्याही ख़्वाब

लिखना तो बहुत कुछ था
पर कैसे लिखूं
कि ख़्वाबो कि स्याही काली क्यूँ है,
क्यूँ नीले सुनहरे आसमान
का रंग बर्फीला हो गया,
कैसे धानी घास
दूब से मुंह मोड़े है,
और क्यूँ हर शरारत
हर हरकत से हैरां ये शाम है?
१९४७ में रंगीले ख्वाब जो
हमने धानी घास से सुनहरे आसमान को देखते बुने थे;
वो अब बर्फीली दूब के साथ इस शाम के हमसफ़र हैं
और हम तुम जो हैं भी और नहीं भी,
इन्हें देखतें हैं और सोचतें हैं
क्या लिखें, किसे लिखें;
क्यूंकि किसी क्रांतिकारी की याद अब
सहानुभुतिक अपराध है,
नियामगिरि, जैतापुर, कून्दकुलम में सत्याग्रह
राष्ट्रद्रोह कहलाता है,
लिखने-पढने या कुछ गढ़ने की आज़ादी से
संविधान नाराज़ हो जाता है,
और ऐसा क्यूँ कर हो ये पूछा
तो हम और हमारे प्रश्न दोनो ही माओवादी होतें हैं,
गाँधी के तीन बन्दर आने वाले कल की तस्वीर है
जिनके गले में तख्ती बंधी है-
'आज़ादी वो जेल है जिसकी हदें हम खुद तय करते है',
ना बोले, ना लिखें, ना पढ़ें, ना सोचें, ना समझें,
ना कहें, ना पूछें, ना हँसे, ना रोयें-
-आज़ादी की शर्तें साफ़ हैं
पर ख़्वाबो की गैरत तो देखिये
स्याही बने जा रहे हैं
और इसी स्याही से धानी घास पर कुछ लिखें जा रहे है ....

Thursday, 3 May 2012

किस्से

किस्से कैसे कहें
किसे कहें
क्यूँ ?
कब
किधर कटें
कसे कसे
किस्से
कसमसे
क्यूँ ?
किससे कहें
किधर
कटे कटे
किस्से
कटे किससे
क्यूँ ?
कटे कटे
कसे कसे
किस्से
क्या किससे
कहें
कहें क्या
कब
किससे
कौनसे किस्से
क्यूँ?

Wednesday, 11 April 2012

सब्र करो राधे आज

राधाजी अब तो, तुम ही कहो क्या राज?
बोले थे कान्हा, कैसे, 'राधे, सब्र करो तुम आज'?
राधाजी अब तो, तुम ही कहो क्या राज?

सखी री तुम से, कैसे, कह दूं सारी बात?
सब्र कि पाथी ना खोले ना बंद हो
कान्हा की बंसी थिरके जब मधुमास
सखी री तुमसे, कैसे, कह दूं सारी बात?

राधाजी अब तो, तुम ही कहो क्या राज़
बोले थे कान्हा, कैसे, 'राधे, सब्र करो तुम आज
'

सखी री तुम से, कैसे, कह दूं सारी बात?
लाज की गठरी में बाँध के बैठी
मतवाले मंझीरे का साज
और कान्हा तुम्हारे कहते हैं मुझसे
'राधे, सब्र करो तुम आज'
सखी री तुम से, कैसे, कह दूं सारी बात?

राधाजी अब तो, तुम ही कहो क्या राज़
बोले थे कान्हा, कैसे, 'राधे, सब्र करो तुम आज'


सखी री तुम से, कैसे, कह दूं सारी बात?
वो जब चाहे तब छु जाए मुझ मीरा की हर सांस
बैठे हैं देखो डाले किसके हाथो में दोनो हाथ
हरजाई कहते हैं मुझसे, 'राधे, सब्र करो तुम आज'
सखी री तुम से, कैसे, कह दूं सारी बात?

राधाजी अब तो, तुम ही कहो क्या राज़
बोले थे कान्हा, कैसे, 'राधे, सब्र करो तुम आज'


सखी री तुम से, कैसे, कह दूं सारी बात?
प्रेम में रीती लाज कि पाथी
सब्र की गठरी ढूंढ ना पाती
उनकी मर्यादा जब बंधन बन जाए

विमुख मन कैसे कृष्ण संग रास रचाए
साफ़ साफ़ जो कुछ भी ना बोले
बस करें इशारे मुझे बुलाये
मैं बावरी जानूं समझूं
प्रेम में दूरी भी लगती साथ
एक पग आगे, एक पग पीछे
कैसे रुकूं मैं आज?
बोलेंगे कान्हा, 'राधे, सब्र करो तुम आज'
सखी री, कैसे, उनसे कह दूं सारी बात?

Monday, 9 April 2012

retreat

seamlessly, easing out,
invisibly
in times that will now reminisce
of the time that passed by
strange pleasure in this
not knowing
not seeking
a collected self splintered now in multitudes
showing gravity its place
as i walk from this place to that
inside
outside
you were right
there are many forms of retreat
and mine began
while you were scribbling a discreet dream.

Thursday, 1 March 2012

साहिब

कुछ इस अदा से
कहा उसने
'काफ़िर हो तुम,
तुम्हारा इरादा काफ़िर.
आलिम सब हमारे,
हमारे सब जाकिर'
तंगदिल, निजाम की हरकतें ऐसी
खुद साहिब के ईमान की सारी दलील
बेतासीर

Inspired by: The German's Hand. And the Doctor's Googly

Saturday, 18 February 2012

letters

letters
that i write for him
you write for her
and we read for each other.
letters
that never reach him
that never reach her
and we keep together.
letters
we close
to dispose someday
letters
that we now embrace.

Sunday, 22 January 2012

कोहरा

ये वो पहर है,
जब कोहरा पुकारता,
कुछ नयी है छूहन,
कुछ कहीं छूटता,
दम बा दम क्या कहें;
सूरजमुखी सा चाँद है,
हर पहल में छुपी,
एक सुबह,एक शाम है...