Saturday, 21 March 2009

मेरा आसमां


Photograph by Sridevi Panikkar

जाने क्यूँ
बार बार दिल मचलता है उड़ने को;
मगर न जाने मेरा आसमां कहाँ है!
सब कुछ ठहरा हुआ सा लगता है,
कुछ रुका, कुछ सहमा हुआ सा लगता है;
देखो, वो पलाश पर ओस अभी भी सो रही है;
मानो; उसका ये सुकून एक सच हो,
होता होगा शायद एक समाँ ऐसा भी,
जहाँ बेफिक्र हो नींद की गोद में बेठा जा सके;
मगर न जाने मेरा वो जहाँ कहाँ है!
पल पल मचलता ये मन;
मानता ही नही,
कि; ये बड़े लोगो की दुनिया है
ऊँचे मंसूबो, ऊँची बातो की दुनिया है
कूदाले मारता है ये तो,
रेत के घर बनाने को;
दरिया में नहाने को;
गुडिया को सजाने को;
कैसे समझाऊँ इसे
कि; नही जानती मैं,
मासूम ख़्वाबो का ख्वाबगाह कहाँ है
फिर भी, न जाने क्यूँ;
बार बार दिल मचलता है उड़ने को
मगर न जाने मेरा आसमां कहाँ है!
नए नए अफसानो से सजी आँखें
कितनी खुशी से रोती हैं;
पल में मरती और पल ही में जीती हैं;
अजीब है, मगर है
हसीं इस जिन्दगी में;
सब कुछ सच है,
और; सब कुछ एक धोखा है;
हसरतो को झूमने से
नही किसी ने रोका है,
बस बात इतनी सी;
खुशियो के दरवाजे पर
एक बड़ा सा ताला है,
आज़ादी है;
अपने अन्दर के इंसान को बाँधने की
चुप रहकर सहना ही;
शायद सभ्यता की परिभाषा है,
फिर भी तमाम बंदिशों के साथ
जी सकने की दिल में एक आशा हैं
ठहराव में दर्द तो है बहुत,
मगर कारवां छोड़;
अकेले इसे सहने का होसला भी कहाँ है
जिन्दगी के साथ,
जिन्दगी के लिए;
जिन्दगी को ढूँढती हूँ मैं;
मगर जिन्दगी क्या है इसका बयाँ ही कहाँ हैं
फिर भी, न जाने क्यूँ;
बार बार दिल मचलता है उड़ने को,
मगर न जाने मेरा आसमां कहाँ है!

Tuesday, 17 March 2009

कल शाम

कल शाम;
कारें भी मुस्कुरा रही थी,
सड़कों में भी अलग सी चमक थी;
दुकाने भी जैसे लपक के झपक के कुछ बता रही थी,
बिनायक सेन के वास्ते जंतर मंतर पर;
हम गीत गा रहे थे,
और उन्हें सुनते सुनते;
बगल में तिब्बत के तम्बू भी कुछ जता रहे थे,
अँधेरे में जगमाते बल्ब ;
हर एक मिनट में पाँच बस,
और हर बस में थकी थकी सी भीड़;
फुटपाथ से चिपकी धुल के साथ,
जैसे तूफ़ान को बुला रही थी;
शायद अपनी हस्ती में मस्त,
दिल्ली भी नया दौर गुनगुना रही थी;
कल शाम

Monday, 16 March 2009

Trap


left no more left,
right no more right;
centre not being the centre,
they rule with their might;
with full circle,
from front to behind;
I can't even opt to be non aligned!

Sunday, 15 March 2009

गुब्बारा

कभी कभी लगता है,
कि; ये दिल गुब्बारा होता है
खाली हो तो लंबा मुंह करता है
और भर दो तो मुटल्ला हो तनता है
पहले पहले तुम्हारे चाहने पर
कभी अकड़ता तो कभी सिमटता है
एक हद के बाद
गुब्बारा भी विरोध करता है

अब

अब,
गुलाल भी है,
भांग भी है,
प्यास भी हैं,
मैं भी और तुम भी
अनुराग भी है,
साथ भी है,
शाम भी है,
मैं भी और तुम भी...

Saturday, 14 March 2009

Parting Gift!

Thanks,
that you left
for you write;
so you see,
what delicious love
words make to me!

सिर्फ़ दूरी

कारवां चुने,
या तनहा रास्ता;
मंजिल भी रवां रवां,
ना हसरतो का भी वास्ता;
पर, एक शाम साथ साथ;
हंस देंगे हम कभी,
दूरियो का मतलब;
क्यूंकि फासले नही

I and You

These days friends often ask me,
'why do you stay up all night?'
How to answer when;
between,
now and then;
I float wondering...
was I the pause you needed,
to simmer in life or;
were you the punctuation
that brings in unknown delight?

?

ना सच ही सच है;
ना काला सफ़ेद,
दर्पण है कारण;
बनता रंगरेज़,
जो सोचा, जो समझा
पाया वही है;
पर है प्रशन,
क्या यही सही है?

दिल की बातें

दिल की बातें, दिल ही जाने
सोचे समझे, जाने अनजाने
रिश्तो की सीमा में बंधकर;
कोई कैसे रब को पहचाने,
अक्सर खामोशी के बयां में;
ये लब हँसते, ये लब रोते,
पाना ही जो होती चाहत,
पाकर ही शायद सब खोते,
फिर भी दिल में हसरत होती;
अपने भी होते अफ़साने,
दिल की बातें दिल ही जाने
होठो पे ठहरी सी बातें;
ख़्वाबो में सहमी सी रातें;
लश्कर में भी तन्हा होकर,
अपनो में सपनो को बांधे;
प्रीत मेरी जो गीत बने तो,
झूम उठेंगे सब परवाने;
दिल की बातें दिल ही जाने

कैसे कहूं?

photo by Pawas Bisht

ख्वाहिश की हाथ पर,
मेरा भी कोई चाँद हो;
रुख से नकाब हटे,
बेपर्दा मेरा भी ख्वाब हो,
बेपनाह चाहतो का,
काफिला तो साथ है;
मुख्तसर सी है मगर,
कैसे कहूं क्या बात है
आईने में जो देखा,
रकीब मेरा वो नही;
फासलो की हसरतो में,
अब करीब कोई नही;
दूर बेठे हंस रहे तुम,
पास आते क्यूँ नही?
क्या समझा, ख़ुद से अलग
मुझको, तुमने हयात है?
मुख्तसर सी है मगर,
कैसे कहूं क्या बात है
रात बहती जाए पर,
ठहरे कहाँ जज़्बात हैं!

Friday, 13 March 2009

Protest

Amidst banners, street actions;
die-ins and vigils;
you saw issues,
and made me another poster.
When thousands flocked,
hand in hand;
crisis marking every head,
I became faceless.
Drowning in endless,
cries and shouts;
slogans and promises,
every noise an opportunity;
you urged me to speak.
I looked at you;
you who were;
fighting from within,
cheering from margins;
guarding the fences,
and I also looked at you,
who were looking at me.
The choice is tough;
who leads whom,
and to what;
so silently protesting,
I enjoy my 'being' now!

Girls!

As we hurried to reach school,
crossing the river;
passing blue pool,
I remember you next to me.
Growing up,
a bit of swing;
and a bit of humph,
how to be the 'perfect she',
looking at mirror,
I remember you next to me.
Side by side;
in a crammed bus,
a man and his lust;
holding anger and disgust,
I remember you next to me.
Dealing confusions,
amidst illusions;
fighting fears,
surviving tears;
I remember you next to me.
Restless silence,
endless talks;
amidst celebrations,
through the failures;
in my waiting,
I remember you next to me.

Tuesday, 10 March 2009

Boys!

When a friend,
like a NGO,
you believe in transparency of feelings,
accountability of actions;
open sharing of desires and fancies...
when you have my heart;
you become a perfect corporate,
never talking anything;
but, trade secrets act;
no wilful disclosure,
and never ever owning upto what you did to me!

Monday, 9 March 2009

Magic

For once,
I thought nights will never talk;
birds will never sing;
roads will not show;
moon will never wink;
wind will not touch;
dreams will never reign;
for once,
my heart seemed in chains.
Now,
I think magic is on,
And am enjoying the music again.

Sunday, 8 March 2009

ज़िन्दगी

कहीं दायरो में सिमट ना जाए ज़िन्दगी
तंग सोच में उलझी,
ढलती हुई शाम सी,
डरती हूँ,
मेरे रुकने से कहीं, रुक ना जाए ज़िन्दगी
हँसी के पैमाने में;
छोटी-छोटी सी खुशी,
रास्तो को ढूँढती,
बंधती सी दिल्लगी;
बहती हुई, सहती हुई
लक्ष्मण रेखा भी कभी;
आग के शोलो में;
कहीं दहक ना जाए ज़िन्दगी;
डरती हूँ,
मेरे रुकने से कहीं, रुक ना जाए ज़िन्दगी

खोजती है, जानती है
मगर फिर भी,
हचानती है;
विरह को वेदना से,
अलग क्यूँकर मानती हैं?
पाकर भी खोती, या खोकर भी पाती
इसकी ये जुस्तजू;
की, ऐ दिल तेरे एहसास को,
मचलती सी ज़िन्दगी,
डरती हूँ;
मेरे रुकने से कहीं, रुक ना जाए ज़िन्दगी

आरजू

लबो पे ओढ़ ली हमने, जो एक चादर है;
हया की आन में समझा, की एक इशरत है;
चाहतो की दरगाह पे; जो मैयत हो ज़रूरत की,
रवानगी के चलते; मुख्तसर सी जो खुमानी हो,
मालूम हो की मैं नही, कारवां अकेला है,
तन्हाई के बवंडर का, ये जिन्दगी तो मेला है;
हम में गुम होने की, सिर्फ़ मेरी ही नही आरजू;
हर दिल का ये अरमान, हर दिल की जुस्तजू

Bidding

You seem to have changed,
Now you don't ask me where I was when I wasn't with you;
When I get back home,
You rather ask,'how was the day?"
You don't seem to mind me driving your car,
rather you seem to enjoy not to be the driver all the time.
You move in my kitchen with utmost command,
as if you always belonged there.
You chase me till I give in.

And I change too;
Basking in your adulation,
I let you foot my bills;
I ask if I should dress up for our dates,

I let you see the vulnerable me,
and I seem to understand the vulnerable in you.
Enjoying the journey,
I think we are co-travelers,
and so i don't seem to note, 'who did the bidding?'
leading me on and urging me to trust,
You explore your way in while seeking ways out;
and because you always thought only about you,
I realize i traveled with shadows earlier and a ghost now.

Saturday, 7 March 2009

कभी

कभी खुशी की तलाश में;
तो कभी गम से राहत की आस में
अपनी उन्ही तन्हाईयो से बचने के वास्ते,
मंजर सुनहरे जिनके, अंधेरे हैं रास्ते
खो गया तो क्या? पा लिया तो भी क्या?
खुरदरी हथेलियो पर माया का एहसास,
और;
भ्रम में जीते हम, हंसते बोलते ;
कभी रंग, कभी रास
मगर, फिर भी तनहा हम;
पलको से झांकते,
लगाये उम्मीद के कयास;
कभी खुशी की तलाश में,
तो कभी ग़म से राहत की आस में
कभी नाते बनायें;
माथे से लगाया,
सिन्दूर और बिंदिया से;
जीवन सजाया,
कोई हंसा तो, हँसे हम;
कोई रोया तो, रोये हम,
माँ ने कहा था, जब डोली उठी थी;
"बेटी जीवन वहीँ, संसार वहीँ है;
पिया का आँगन, उसका द्वार वहीँ है "
मगर, दिल एक हाथ का पंछी;
एक आस का भंवरा;
प्रीत तो चाही इसने,
किंतु; मीठी वाणी का स्वार्थ ना भाया;
बंधन की डोली में बेठा
किंतु; खुला आंसमां ना गया भुलाया
और, फिर उड़ा ये;
दूर बहुत दूर तलक,
अरमानो के मंच पर;
संजोये चाहतो का आशियाना,
कभी खुशी की तलाश में;
तो कभी ग़म से राहत की आस में

दोस्ती

दोस्त की दोस्ती में वो सब देखा,
जो शायद अनदेखा कर जाती मैं
खुशी देखी, दर्द देखा;
नज़रो का चुराना देखा,
मिल कर भी न मिलना देखा;
हया देखी, बयां देखा
आंसूओं से कहके देखा,
जो शायद जबां से कह न पाती मैं
दोस्त की दोस्ती में वो सब देखा;
जो शायद अनदेखा कर जाती मैं
हसरतों की कब्र देखी, वफ़ा का दमन देखा;
विरह की तपन देखी, रुसवाई का चलन देखा;
जज़्बात की आंधी को, एहसास से देखा;
जिसके क़दमो की आहट को,
शायद पहचान न पाती मैं
दोस्त की दोस्ती में वो सब देखा,
जो शायद अनदेखा कर जाती मैं
किसी का उठना तो किसी का गिरना देखा;
भीड़ में भी हर किसी को तनहा देखा,
जुदाई की रात की अंगडाई देखी;
बातें हम्ख्याली की मगर तन्हाई देखी,
कारवां की हलचल में जो शायद सह भी जाती मैं;
दोस्त की दोस्ती में वो सब देखा;
जो शायद अनदेखा कर जाती मैं

सच

सच,
शायद यही सच है,
जो दीखता है
आवाजें भी वही सच हैं,
जो सुनायी देती हैं
और इन सब के मध्य,
जो चुप हैं,
वो भी सच है
सच,
शायद ऐसा सच,
जो मौन है;
या फिर,
प्रतीक्षा में है;
सत्य के सूर्योदय की ,
आतुर है,
आस्तित्व अपना बताने को;
किंतु;
क्यूंकि यह भी सच है,
की, जीत ही महत्वपूर्ण है,
अन्धाधुन्ध दौड़ की पहचान;
ये दुनिया,
हाथो की गर्मी,
और;
आंखो की नरमी,
के लिए तरसती हर आत्मा,
प्रणय में भी विनय,
यही है;
विवशता सच की;
जब समक्ष हो, तो सक्षम नही,
जब सक्षम हो, तो समक्ष नही;
सत्य की दोधारी तलवार,
विराम तो देती है,
विश्राम नही
हृदयग्राही बनने को लालायित,
मानवता का प्रलोभन हो,
या अछुता मान,
व्यर्थ विवादो में,
सच तलाशती ये आँखें हो,
या, आतंक में शान्ति ढूँढता,
कोई इंसान;
सब;
कंही न कंही भूखे हैं;
निस्वार्थ भावना के,
किंतु;
रक्त के प्रवाह में,
जब मचा हो हाहाकार,
मन्दिर की घंटियो की गूँज,
तब सुनाई नही देती,
आत्मा में परमात्मा की उपस्थिति
तब दिखाई नही देती;
इंसान को तलाशता इंसान ही है सच;
शायद यही सच है,
की, आप और मैं,
सच की समीक्षा न कर,
अब सच की प्रतीक्षा करें

Howcome?

They say I've gained a lot,
realizing my identity;
& probing into thoughts.
Still;
perhaps the truth hides itself,
& binds itself.
Embers remain,
body though destroyed.
Perhaps;
the pain go unfelt by the world,
But, she feels this and more;
& so,
she survives.
Thereafter, till eternity
holding deaths in her hands,
& unsurpassed guilt on her conscience;
Still, they say
I've gained a lot.

नैना

देखो तो,
कैसे ये पल हैं,
हर पल मचलते से,
अरमानो की झाँकी
और इन नैनो में, हंसती
तुम नैना !
मन की डोर में,
ऊँचें ख़्वाबो की सेज,
सतरंगी मंच पर;
जुगनू सी डोलती,
जाने किस आस से चाँद को देखती;
और अपनी हसरतो में,
चांदनी को बांधती;
तुम नैना !
यूँ तो लाखो चकोर
चाँद को तरसते हैं,
लेकिन नैना के सपने तो;
केवल शैल से संवरते हैं,
तब है हासिल,
स्वाभिमान की दीप्ति;
इस गहरे सम्बन्ध की,
कहानी ही कीर्ति;
फिर भी यह दुनिया,
दिनो में, जिंदगी को तौलती है;
और, पलो से बेखबर;
पलो में, जिंदगी को खोती है,
अपनी तो इसलिए,
बस इतनी सी आरजू;
'क्यूँकी हर जाने वाला पल,
हमें आने वाले पल से जोड़ता है'
हर पल जिन्दगी के एहसास से मुस्कुराना,
तुम नैना !

भोपाल

राहतो का महकमा,
खुशगवार यूँ रहा;
मुश्किलो के सिलसिले,
अटकलो का जहां;
पैगाम यह हुआ,
कारवां में दौड़;
खुदगर्जी के अचकन में,
ना साँसो को छोड़;
दामन में थाम ली,
पल दो पल की आस भी;
पलको में बाँध ली,
हमने चाहतो की पोटली;
पोटली में साकी भी था,
और था जाम भी;
रुकी रुकी सी शाम थी,
लबो पे एक नाम भी;
ना शिकस्त थी वो,
ना फरियाद थी;
अपने मुकाम की तकदीर पे;
जीत की ताबीर साफ़ थी !



Weird

Weird,
How this came to be so.
Knowing your boundaries,
I restrained
while, you remained the stock-still shore.
Growing to enjoy the rhythm
and bridging the gap,
between those spaces;
you claimed were so sacred,
that you rejected any connection,
yet, contemplating...
why not!
I know the conflict that marks,
the sway of an unclear mind;
so, like the roving waves
I waited;
for us to realize,
how we touch each other.

Friday, 6 March 2009

Love

Sometimes it takes so long,
nowhere to go,
& nowhere to turn to.
With shattered hopes,
returning to a point,
which marks my demise.
Still unaware
& still occupied,
the web of love entangles me.
I question its identity,
& probe into its self.
It is there,
right before me,
stubborn yet humble,
it looks into my eyes,
reflecting the stirring future ahead.
I deny;
& gather my soul.
Miles ahead,
I am here taken aback
& hoping against hope.
Yet, it stayed.
I can't do it off,
as I can't with my shadow.
It was within me,
flowing & rendering a warmth.
Nowhere to go
& Nowhere to turn to,
I now look forward,
to love and to be loved.

Thursday, 5 March 2009

A little girl

Yes, a girl you are!
with wings,
ready to fly.
Not to be overt
and
yet, not to be shy.
Somewhere in the branches,
on the tree on hill top.
Company is rare
but, lonely you are not;
busy looking within...
and flipping the pages of soul,
and imagine,
the pages turn within
and you turn out.
They think you are looking for the light
and they wonder if,
you are looking for someone around,
while, all the time you lie there;
being the air
that connects light with the sound
a little girl that you are !!

Buddha reasons

'Why I am, what I am?
often I sit occupied with nothing
but, this thought.
The thought is not mundane,
it had the might of a tide,
taking all other thoughts in its sway.
Yet, it had the plight of an infant,
searching for 'that' look of recognition.
With it, I am helpless
Without it, I am useless.
The crisis of identity is the cause
and I ask, 'Why I am, what I am?'

I am so I fear and yet cheer,
hope and yet struggle.
I am so I fight and yet achieve,
smile and yet decieve.
And the suffering has to be adorn
for we got the birth
and if birth leads to suffering
then why the will to be born?
I reason;
Perhaps we attach ourself to this world,
Perhaps we attach ourself to its objects,
This attachment is nothing
but, the desire for possession
and the possession is nothing
but, an effect of perception.
We touch, we hear and we see
and so the impulse of detachment flee.
We feel so we lust,
we need so arise a thirst.
I reason;
my senses lead to its cognition
but, could they do it,
without a mind-body conglomeration?
It was decided when I was still in the womb,
the impressions carved
casted by nothing
but,
glimpses of past
Travelled through all zones of time,
the journey of future, present and past,
I am still in the darkness
Just as I always was,
and in this perfect black of ignorance,
I feel the void within,
the enlightened though showed the path
but, the reason remains to be reasoned
'Why I am, What I am?'


Oh...how I blossom!

Oh! How I blossom!!
Soul no more a treasure of flesh,
hopes no more the urge,
ripples of passion come beating,
when cause and effect merge,
Oh! how I blossom.

Since parameters lost their meaning,
and wild goose chase bagan,
my thoughts wandering,
in mortal and immortal zones,
the rigid ground a witness,
to the zest of a zeolot's run.
Oh! how I blossom!

The twilight my vigenette,
and xanthic halo my glow,
union of real fallacies,
the transition an amazing flow.
Stiffness of death dismantles,
as life becomes eternal,
with the joy of freedom,
cherishing the beauty in deformity,
Oh! How I blossom!

Soliloquy

Yes, I was alone,
huddled within my own self,
inside the brackets of life.
The frontiers opened
and I hustled inside.
The liberal air shed
dewdrops
that rested on my soul.
New dimensions unfolded,
in untouched, unseen horizons.
In the merky depths
moved new ripples.
Within me arose
fragrance of unforgettable moments.
You will remain and resolve,
all my odd equations.
Randevouz with
new experiences await me.
Awakened and delighted,
you will radiate,
the most humble portrait of my life,
which I look forward to,
with the earth within
and a sky to search for...